हसन भाई की क़लम से, जोश में अपना होश गवां देने वाले मुस्लिम पहले यह ज़रूर पढ़ लें

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सामुदायिक धर्म और वैश्विक धर्म का फ़र्क़ समझए और इसे क़ुबूल कीजिए.. अपनी अना, झूट और फ़र्ज़ी जौश और जज़्बे को धर्म बनाने की कोशिश न कीजिए.. इस्लाम मुसलमानो की प्रॉपर्टी नही है, क़ुरआन पिछली कौमो का इतिहास बयान करता है.. सिर्फ इसलिए कि क़ुरआन पढ़ने वाले पढ़कर अपने लिए रहनुमाई हासिल करें.

यहूदियों ने कहा था, हम अल्लाह की औलाद हैं, हमारी क़ौम ही सबसे ऊंची है.. ये श्रेष्ठता उन्हें ले डूबी.. पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम जब बिस्तर पर लेटते तो ये कहते “ए अल्लाह में गवाही देता हूँ कि तमाम इंसान आपस मे भाई भाई है” इस्लाम ने इंसानो के बीच इंसान होने में फ़र्क़ नही किया.. लेकिन मुसलमानो ने “कुफ्र और शिर्क” की खास टर्मिनोलॉजी को नफरत और दुश्मनी के लिए इस्तेमाल किया.. यक़ीनन बहुत से लोग हैं जो अपनी ‘फ़र्ज़ी मुसलमानी’ के दम पर श्रेष्ठता का भरम पाले हुए हैं…

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आज मुसलमानो की हालत भी कुछ ऐसी ही है, वो कहता है मेने कलमा पढ़ लिया है, अब दुनिया के और लोगो से में अफ़ज़ल और बेहतर हूँ, हालांकि उसकी जिंदगी में इस्लाम दूर दूर तक नही है, लेकिन अगर उसके सामने किसी ने इस्लाम पर टिप्पणी कर दी, तो वह इस्लाम की हिफाज़त के लिए टिप्पणी करने वाले को जी भर कर गालियां देता है.. क़त्ल का फतवा देता है, हालांकि इस्लाम आपको इसकी इजाज़त नही देता… मज़हब की हिफाज़त का जौश एक नफसियाती बीमारी है, बाज़ हालात में मज़हब पर चलना एक मुश्किल चीज़ है, जो लोग मज़हब के असल हुकमो पर नही चल पाते वो अपराधबोध का शिकार हो जाते हैं, और जब कभी कोई मौका आता है जहां मज़हब पर कोई उंगली उठाता है तो वह लोग अपने अंतर्मन को सन्तुष्ट करने के लिए मज़हब की हिफाज़त में कूद पड़ते हैं, और मज़हब की मुहब्बत में सारे काम गैर मज़हबी करते हैं…

हालांकि ऐसे मौके पर हक़ीक़त पसन्दी से काम लेना चाहिए, वक़्ती जौश और जज़्बे से परहेज़ करते हुए दूरगामी मंसूबा बन्दी से काम लिया जाए, और उन कारणों का पता लगा कर ठीक किया जाए जिन कारणों से लोगो ने आपकी आस्था को ठेस पहुंचाई, ये मुश्किल है लेकिन बेहतरीन है, और इसके परिणाम हर हाल में अच्छे आएंगे, इसके बर खिलाफ अगर जज़्बे और जौश की बुनियाद पर क़दम बढाया जाएगा अक्सर हालतों में नुकसानदेह होगा..हमे सबसे पहले इस हक़ीक़त को समझना होगा कि हम सिर्फ ज़िम्मेदार हैं, हमारे ऊपर इस्लाम को पेश करने की बड़ी जिम्मेदारी हो सकती है, हम श्रेष्ठ नही हैं, ये है कि इस ज़िम्मेदारी को अगर हमने ठीक ठीक निभाया तो हम अपनी बेहतरी साबित कर सकते हैं, लेकिन ये कोनसी अक्लमंदी है कि एग्जाम हॉल में दाखिले को अपनी कामयाबी समझ लिया जाए… और दूसरे लोग जो हमारे साथ एग्जाम हॉल में मौजूद हैं उनको अपने से कमतर समझा जाए……!!

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