कश्मीर वैसे तो अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन पिछले कई सालों से आतंक के लिए भी बदनाम हो चुका है। इस खूबसूरत घाटी में आए दिन आतंकी वारदातें होती रहती हैं, जिससे यहां रह रहे कई लोग परेशान हैं। इन सबके बीच कश्मीर से ऐसी खबरें हमेशा से आती रहती हैं, जो बताती है कि कश्मीर के लोग आतंक के साए में नहीं, बल्कि एक खुशहाल जिंदगी जीना चाहते हैं। ऐसी ही एक घटना सामने आई, जो कश्मीरी लड़कियों के खेल के प्रति जुनून को दर्शा रही है।
दरअसल, बारामूला गवर्नमेंट वुमेंस कॉलेज की क्रिकेट टीम चर्चा का केंद्र बनी हुई है। अब आप सोचेंगे इसमें खास क्या है, तो आपको बता दें कि ये लड़कियां चैंपियन बन गई हैं, लेकिन वो भी हिजाब और बुर्का पहनकर। इस टीम में कैप्टर इंशा से लेकर कई ऐसी लड़कियां हैं जो हिजाब या बुर्का पहनकर क्रिकेट खेलती हैं। इन लड़कियों के लिए चुनौतियां केवल क्रिकेट के मैदान पर नहीं हैं, बल्कि इनको सामाजिक और मजहबी रूढ़िवादियों से भी जूझना पड़ता है। लेकिन, इन सबके बावजूद इस क्रिकेट टीम ने पिछले हफ्ते इंटर यूनिवर्सिटी क्रिकेट चैम्पियनशिप जीत ली।
टीम की कप्तान इंशा चौथे सेमेस्टर में पढ़ रही हैं। वे आमिर खान के टीवी सीरियल सत्यमेव जयते का गाना गुनगुनाती हैं- “बेखौफ आजाद रहना है मुझे।” उनके साथ दूसरी लड़कियां भी यही गाना गुनगुनाती हैं। ये सभी जुनून और परंपराओं के बीच एक मुश्किल डगर पर चल रही हैं। इन्हें क्रिकेट खेलना है, फिर वो हिजाब या बुर्का पहनकर ही क्यों ना खेलना पड़े।
फर्स्ट ईयर की छात्रा राब्या टीम की ऑलराउंडर हैं और बुर्का पहनकर बैटिंग, बॉलिंग और फील्डिंग का जिम्मा संभालती हैं। बारामूला में रहते हुए उन्होंने यही किया। श्रीनगर में वे बुर्का की जगह हिजाब पहनने लगीं। राब्या ने बताया, “मैं दारासगाह में पढ़ाने वाले अपने टीचर की बातों के खिलाफ नहीं जा सकती।
क्रिकेट टीम की कैप्टन इंशा जम्मू-कश्मीर वुमंस टीम का हिस्सा रह चुकी हैं और वॉलीबॉल नेशनल टीम में भी चुनीं गईं। उन्होंने भी पहले बुर्का पहनकर ही क्रिकेट खेलना शुरू किया था। लेकिन, समाज ने इसे अच्छा नहीं माना और उस पर ताने कसे। इंशा बताती हैं- ये सफर कभी भी आसान नहीं था। जब मैं ट्रैक्स और क्रिकेट बैट के साथ चलती थी तो लोग मेरे पिता से शिकायत करते थे, लेकिन मेरा परिवार सपोर्टिव था।
कॉलेज के उर्दू प्रोफेसर रहमतउल्लाह मीर ने इंशा की काबिलियत को पहचाना। वे कहते हैं, मैं उसकी परफॉर्मेंस देखकर हैरान था और मैंने उससे कहा कि क्रिकेट की दुनिया में कुछ करो। कॉलेज में इन्फ्रास्ट्रक्चर और स्पोर्ट्स पॉलिसी की कमी ने राह मुश्किल कर दी। हमने सोशल मीडिया पर मदद के लिए कैम्पेन चलाया, लेकिन वहां आने वाले कमेंट्स हौसला तोड़ने वाले थे। फिर हमने कॉलेज प्रिंसिपल की मदद से टीम बनाने का फैसला लिया जो यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट में हिस्सा ले। ये बहुत मुश्किल काम था। फिजिकल ट्रेनर्स गुरदीप सिंह और शौकत अहमद ने लड़कियों को ट्रेन करने में मदद की। इंशा ने भी वॉलीबॉल नेशनल कैम्प के एक्स्पीरियंस को ट्रेनिंग में इस्तेमाल किया।
परिवार ने बुर्के में खेलने की दी इजाजत: इंशा ने बताया, हम खेलों में कुछ करना चाहते हैं। हमने सरकार से कई बार ट्रेनिंग सेंटर खुलवाने की मांग की, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसके अलावा परिवार की परेशानियां भी सामने आईं। हमारे पास कुछ अच्छे प्लेयर्स हैं, जैसे राब्या। उसके परिवार ने क्रिकेट खेलने की इजाजत एक शर्त पर दी कि बुर्का पहनकर खेलना होगा। दूसरों को भी हिजाब पहनकर खेलने की शर्त पर मंजूरी मिली।
राब्या के पिता एक मजदूर हैं, जबकि इंशा के पिता बशीर अहमद मीर बारामूला में फलों का कारोबार करते हैं। बशीर कहते हैं, “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। मैं लोगों की परवाह नहीं करता हूं। मैं इस पर तवज्जो देता हूं कि मेरी बेटी क्या चाहती है। वो बचपन से ही टॉमबॉय टाइप थी। मैं केवल इतना चाहता हूं कि वो अपना ख्वाब पूरा करे। मैं उसके कोच गुरदीप साहब और शौकत अहमद को शुक्रिया कहता हूं, उन्होंने उसे अच्छी ट्रेनिंग दी। क्रिकेट केवल खेल है, लेकिन उन लोगों ने बेटी में लड़ने का माद्दा पैदा किया।
वुमंस कॉलेज में माली का काम करने वाले मोहम्मद अशरफ पारे ने क्रिकेट टीम के लिए ग्राउंड्समैन का भी जिम्मा उठा लिया। उन्होंने कहा, मुझे बहुत खुशी होती है, जब ये बच्चे खेलते हैं और जीतते हैं। मुझे लगता है कि मेरी मेहनत बेकार नहीं गई। आज लड़कियां हर मामले में लड़कों के बराबर हैं, फिर यहां ये भेदभाव क्यों?