पूर्वोत्तर की चिंता बढ़ाता चीन का इरादा
नदियां देशों के बीच विवाद और देशों के अंदर चिंता का कारण बनने लगी हैं. कभी नदी पर बांध बनाये जाने के कारण तो कभी पानी के नियंत्रण के कारण. इस समय ब्रह्मपुत्र नदी के बारे में चीन का एक इरादा भारत को परेशान कर रहा है
ब्रह्मपुत्र के पानी को अपने रेगिस्तानी इलाकों में भेजने के लिए चीन की ओर से एक हजार किमी लंबी सुरंग बनाने की खबरों ने पूर्वोत्तर भारत के पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है. चीन ने हालांकि सरसरी तौर पर इन खबरों का खंडन किया है, लेकिन बावजूद इसके इलाके के विशेषज्ञों की चिंता बढ़ती जा रही है. इसकी वजह यह है कि ब्रह्मपुत्र को अरुणाचल प्रदेश और असम की जीवनरेखा माना जाता है. चीन के प्रस्तावित फैसले से जहां अरुणाचल में बनने वाली हजारों मेगावाट की पनबिजली परियोजनाओं का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा वहीं खेती और मछली पालन के लिए इस नदी पर निर्भर असम के लाखों लोगों की आजीविका पर भी गहरा संकट पैदा हो जाएगा. इससे निपटने के लिए विशेषज्ञों ने ब्रह्मपुत्र के ऊपरी इलाकों में बड़े-बड़े जलाशयों के निर्माण का प्रस्ताव रखा है. लेकिन भूकंप के प्रति अति संवेदनशील क्षेत्र होने के कारण वहां ऐसे जलाशयों का निर्माण भी खतरे से खाली नहीं है.
विवाद
इस मुद्दे पर विवाद बीते दिनों उस समय शुरू हुआ जब मीडिया में इस आशय की खबरें आईं थी कि अरुणाचल प्रदेश से सटे सूखाग्रस्त शिनजियांग इलाके को हरा-भरा बनाने के लिए ब्रह्मपुत्र का पानी वहां तक पहुंचाने के लिए चीन एक हजार किमी लंबी सुरंग बना रहा है. हांगकांग से छपने वाले साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट ने इस परियोजना से जुड़े एक शोधकर्ता वांग वेई के हवाले बताया था कि चीन दुनिया की सबसे लंबी सुरंग बनाने की तकनीक पर काम कर रहा है.
वैसे भी तिब्बत में ब्रह्मपुत्र, जिसे वहां यारलुंग सांग्पो कहा जाता है, पर बनने वाले छोटे-बड़े दर्जनों बांधों पर भारत पहले से ही अपनी चिंता जताता रहा है. लेकिन बीजिंग हर बार भारत को भरोसा देता रहा है कि इन बांधों का निर्माण पानी को जमा करने के मकसद से नहीं किया जा रहा है. वैसे, चीन ने यूनान प्रांत में इस साल अगस्त में छह सौ किमी लंबी एक सुरंग का निर्माण शुरू किया है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह एक हजार किमी लंबी प्रस्तावित सुरंग की तकनीक का रिहर्सल है.
दरअसल, इतनी बड़ी सुरंग की योजना बनाने के पीछे बीजिंग की दलील है कि दुनिया की छत के तौर पर मशहूर तिब्बती पठार हिंद महासागर से आने वाले मानसून को रोक लेता है. नतीजतन उत्तर में गोबी रेगिस्तान और दक्षिण में ताकलिमकान रेगिस्तान मानव बस्तियों के अनुकूल नहीं हैं. साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट ने हुबेई प्रांत के वुहान स्थिति चाइनीज एकेडमी आफ साइंसेज के इंस्टीट्यूट आफ रॉक एंड स्वायल मेकैनिक्स के एक शोधार्थी झांग चुआनचिंग के हवाले बताया है कि चीन अब इन रेगिस्तानी इलाकों को हरा-भरा बना कर वहां मानव बस्तियां बसाने की दिशा में धीरे-धीरे लेकिन मजबूत कदम उठा रहा है.
पूर्वोत्तर की जीवनरेखा
तिब्बत से निकल कर अरुणाचल प्रदेश और असम होते हुए बांग्लादेश तक 3,848 किमी का सफर तय करने वाली ब्रह्मपुत्र नदी खासकर असम की जीवनरेखा है. यहां लाखों लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए इसी नदी पर निर्भऱ हैं. राज्य की अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका बेहद अहम है. यह नदी राज्य की लोकसंस्कृति में भी गहरे रची-बसी है. इसे लेकर न जाने कितने गीत गाए गए हैं और फिल्में बनी हैं. अरुणाचल प्रदेश में इस नदी पर कई पनबिजली परियोजनाओँ का काम चल रहा है. अब अगर चीन ने एक हजार किमी लंबी सुरंग बना कर इस नदी का बहाव रेगिस्तानी इलाकों की ओर मोड़ दिया तो इलाके में भारी संकट पैदा हो सकता है.
इससे असम के अलावा पड़ोसी बांग्लादेश में भी खेती का काम पूरी तरह चौपट हो सकता है. इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार अब इसके पानी के भंडारण के लिए विशालय जलाशयों के निर्माण पर विचार कर रही है. अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र की सहायक सियांग, लोहित, सुबनसिरी और दिबांग नदियों पर प्रस्तावित चार पनबिजली परियोजनाओं को पूरे साल चलाने के लिए सरकार लगभग 14.8 अरब घनमीटर पानी का भंडारण करना चाहती है. चीन की ओर से सुरंग बनाने की योजना की खबरों के बाद केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर सक्रियता दिखाते हुए बैठकों का दौर शुरू किया है. सियांग परियोजना के लिए जमीन मालिकों का मुआवजा बढ़ाने के मुद्दे पर अरुणाचल व असम सरकारों से भी राय मांगी गई है.
लेकिन इलाके की भौगोलिक स्थिति और भूकंप के प्रति संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए पर्वारणविदों ने केंद्र से इस मामले में सोच-समझ कर आगे बढ़ने की अपील की है. केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के पूर्व सचिव शशि शेखर कहते हैं, “इस संवेदनशील इलाके में इतने पानी का भंडारण खतरनाक हो सकता है. तमाम पहलुओं के विस्तृत अध्ययन के बाद ही इस मुद्दे पर कोई फैसला किया जाना चाहिए. सरकार को इस मामले में तेजी नहीं दिखानी चाहिए.” दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञ इस मुद्दे पर चीन की योजना को करारा जवाब देने के पक्ष में हैं. एक पर्वारणविद् प्रोफेसर सुगत हाजरा कहते हैं, “भारत को चीन की योजनाओं का खुलासा कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव बढ़ाना चाहिए.”
कोई समझौता नहीं
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत व चीन में पानी के बंटवारे कोई समुचित तंत्र नहीं होना इस मामले में एक बड़ी समस्या है. इन दोनों देशों में ब्रह्मपुत्र के पानी पर कोई औपचारिक समझौता नहीं है. भारत व चीन ने वर्ष 2002 में मानसून के दौरान हाइड्रोलॉजिकल सूचनाओं के आदान-प्रदान पर एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. बाद में सितंबर, 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के दौरान हाइड्रोलॉजिकल आंकड़ों के आदान-प्रदान पर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. लेकिन इसमें कहीं ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे का कोई जिक्र नहीं था.
विशेषज्ञों का कहना है कि ब्रह्मपुत्र का पानी शुरू से ही दोनों देशों के बीच विवाद की एक मुख्य वजह रहा है. इस मामले में चीन भारत के मुकाबले बेहतर स्थिति में है. ऐसे में तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारत को भी इस नदी का पानी कम होने से पैदा होने वाली परिस्थिति से निपटने का माकूल वैकल्पिक इंतजाम करने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए. इसके साथ ही इस मुद्दे पर कूटनीतिक स्तर पर चीन पर लगातार दबाव बनाए रखना भी जरूरी है.